स्वामी श्री युक्तेश्वर जी

“भौतिक चीज़ों के लिए मनुष्य की इच्छा अनन्त है, मनुष्य कभी पूर्ण रूप से संतुष्ट नहीं होता और एक लक्ष्य के बाद दुसरे लक्ष्य के पीछे लगा रहता है। वो “कुछ और” जो मनुष्य पाना चाहता है, वे ईश्वर हैं, केवल वे ही स्थायी आनन्द प्रदान कर सकतें हैं। बाह्य लालसा हमे हमारे आंतरिक स्वर्ग से दूर ले जातीं हैं, वे केवल झूटी खुशी देती हैं जोकि आत्म के आनन्द का केवल वेष धारण कर सकतीं हैं। खोया हुआ आंतरिक स्वर्ग दिव्य ध्यान से शीघ्र वापिस प्राप्त हो जाता हैं।”

~ स्वामी श्री युक्तेश्वर जी

आरम्भिक जीवन

स्वामी श्री युक्तेश्वर जी परमहंस योगानंद जी के गुरु थे। उनका पारिवारिक नाम प्रिया नाथ करार था। विश्वविद्यालय छोड़ने के बाद, उनका विवाह हुआ, एक बेटी भी हुई, और 1884 में वे लाहिड़ी महाशय के शिष्य बने। अपनी पत्नी के इस दुनिया से जाने के बाद, उन्होंने संन्यास लिया और उन्हें नाम मिला श्री युक्तेश्वर गिरी। श्री युक्तेश्वर जी ने दो आश्रमों की स्थापना की, एक है सेरामपुर में जोकि कोलकाता के पास है, और एक पूरी, ओडिशा में। यह आश्रम परमहंस योगानंद जी के प्रशिक्षण के और उनके ‘एक योगी की आत्मकथा’ में लिखित कई अनुभवों के पृष्ठभूमि थे।

महावतार बाबाजी ने श्री युक्तेस्वर जी को नियुक्त किया

महावतार बाबाजी के आदेश अनुसार श्री युक्तेश्वर जी ने योगानंद जी को पश्चिमी देशों में महान कार्य करने के लिए प्रशिक्षित किया। बाबाजी ने श्री युक्तेश्वर जी को एक आलेख रचित करने के लिए नियुक्त किया जिसमे वे ईसाई और हिन्दू ग्रंथों के बीच बुनियादी अंतर्निहित एकता के बारे लिखें। यह किताब बनगयी: कैवल्य दर्शनम। इस किताब में श्री युक्तेस्वर जी ने यह प्रमाणित किया कि पृथ्वी अब द्वापर युग मतलब ऊर्जा के युग में बढ़ चुकी है।

“मैंने आपके ह्रदय की वेदना को अनुभव किया हैं जो पूर्व या पाश्चात्य के सभी व्यक्तियों के लिए विशाल हैं। पूर्व और पश्चिम को कर्म और आध्यात्म के गठबंदन का एक स्वर्णिम मध्य मार्ग स्थापित करना होगा। स्वामी जी, आपको पूर्व और पश्चिम के बीच होने वाले सामंजस्यपूर्ण आदान प्रदान में एक भूमिका निभानी हैं। अब से कुछ वर्ष बाद मैं आपको एक शिष्य भेजूँगा जिसे आप पश्चिम में योग के प्रसार के लिए प्रशिक्षित कर सकेंगे।”

~ महावतार बाबाजी स्वामी श्री युक्तेश्वर जी से कहते हुए

उनकी विरासत

श्री युक्तेस्वर जी नें 9 मई, 1936 में महासमाधी ली जब वे 81 की उम्र के थे। इसके बाद जल्दी ही, वे योगानंद जी के सामने अपने शारीरिक रूप में प्रकट हुए, आत्म की अमरत्व को प्रमाणित करने और मरनोपरांत जीवन के बारे बताने के लिए। परमहंस योगानंद जी ने प्रेमपूर्वक हो अपने गुरु को “ज्ञानवतार” उपाधि विशेषक प्रदान किया।

एकमात्र किताब जो इन्होने लिखी है वह है, “कैवल्य दर्शनम “, जोकि योगदा सत्संग सोसाइटी द्वारा प्रकाशित है।

यह किताब ईसाई ग्रंथों और भारत के सांख्य सिद्धांतों के बीच बुनियादी एकता को प्रमाणित करती है।

“उनका उच्चारित हर शब्द ज्ञान द्वारा तराशा था। मैं सचेत था हमेशा कि मैं ईश्वर के जीते हुए अभिव्यक्ति के मौजूदगी में था।”

~ परमहंस योगानंद