अध्याय 26:

क्रिया योग का विज्ञान

     क्रिया योग  का विज्ञान, जिसका इन पृष्ठों में प्रायः उल्लेख किया गया है, आधुनिक भारत में मेरे गुरु के गुरु, लाहिड़ी महाशय के माध्यम से व्यापक रूप से ज्ञात हुआ। क्रिया शब्द की संस्कृत धातु है कृ, करना, कार्य करना और प्रतिक्रिया; यही धातु कर्म शब्द में भी है, जो कारण और परिणाम का स्वाभाविक सिद्धांत है। अतः क्रिया योग “असीम के साथ विशेष कार्य या विधि द्वारा एकत्व (योग) है।” एक योगी जो इसकी प्रविधि का निष्ठापूर्वक पालन करता है वह कर्म, या कार्य-कारण की सार्वभौमिक श्रृंखला से धीरे धीरे मुक्त हो जाता है।

कुछ प्राचीन यौगिक निषेधों के कारण, मैं सर्वसाधारण के लिए लिखी पुस्तक के पृष्ठों में क्रिया योग का पूर्ण विवरण नहीं दे सकता। इसकी वास्तविक प्रविधि किसी क्रियाबान या क्रिया योगी से सीखी जानी चाहिए; यहाँ मोटे तौर पर दिया संकेत ही पर्याप्त होगा।

     क्रिया योग एक सरल, मनोशारीरिक विधि है जिसके द्वारा मानवीय रक्त कार्बन रहित हो जाता है और ऑक्सीजन द्वारा रिचार्ज होता है। आ. क्सीजन के ये अतिरिक्त अणु प्राण शक्ति में रूपान्तरित हो कर मस्तिष्क और मेरुदण्ड के चक्रों को पुनः जीवित करते हैं। (1) गन्दे रक्त के जमा होने को रोक कर, योगी तंतुओं (tissues) के क्षय को कम या रोकने में सक्षम होता है; उन्नत योगी अपनी कोशिकाओं को विशुद्ध शक्ति में रूपान्तरित करता है। इलाइजाह, जीजस, कबीर और अन्य पैगम्बर क्रिया या किसी समान प्रविधि के पुराने स्वामी थे, जिसके द्वारा वे अपने शरीरों को इच्छानुसार अदृश्य कर सकते थे।

क्रिया  एक प्राचीन विज्ञान है। लाहिड़ी महाशय ने इसे अपने गुरु, बाबाजी से प्राप्त किया, जिन्होंने अंधकारमय युगों में इसके लुप्त होने के बाद इसे पुनः खोजा और इसकी प्रविधि को स्पष्ट किया।

“तुम्हारे द्वारा मैं संसार को इस उन्नीसवीं शताब्दी में जो क्रिया योग दे रहा हूँ,” बाबाजी ने लाहिड़ी महाशय को कहा, “उसी विज्ञान का पुनर्जीवित रूप है जिसे कृष्ण ने, हज़ारों वर्षों पहले, अर्जुन को दिया था, और जो बाद में पतंजलि को और क्राइस्ट को, सेन्ट जॉन, सेन्ट पॉल और अन्य शिष्यों को ज्ञात हुआ।”   

     क्रिया योग  का उल्लेख, भारत के महानतम पैगम्बर, कृष्ण ने भगवद्‌गीता के एक श्लोक में किया है: अन्दर लेने वाले श्वास (प्राण) को, बाहर छोड़ने वाले श्वास (अपान) में, और बाहर छोड़े जाने वाले श्वास (अपान) को अंदर लेने वाले श्वास (प्राण) में अर्पित करते हुए, योगी इन दोनों श्वासों को निष्क्रिय कर देता है; वह इस प्रकार प्राण शक्ति को हृदय से मुक्त करता है और उसे अपने नियन्त्रण में करता है।” (2) इसका अर्थ है: “योगी प्राण शक्ति की वृद्धि द्वारा शरीर में क्षय को रोकता है और अपान द्वारा शरीर में विकास के परिवर्तन को रोकता है। इस प्रकार क्षय और विकास को प्रभावहीन कर, हृदय को शान्त कर, योगी प्राण नियन्त्रण सीखता है।”

     कृष्ण यह भी बताते हैं (3) कि उन्होंने ही, पूर्व अवतार में, यह अविनाशी योग प्राचीन प्रबुद्ध, विवास्वत को बताया, जिन्होंने उसे महान विधि निर्माता, मनु” (4) को दिया। उन्होंने, उसके बाद भारत के क्षत्रिय सूर्य वंश के पिता, इक्ष्वाकु को निर्देश दिया। इस प्रकार एक से दूसरे को देते हुए इस राजसी योग की ऋषियों ने भौतिक युगों (5) के आने तक रक्षा की। उसके बाद, पुजारियों की गोपनीयता और मनुष्य की उदासीनता के कारण, पवित्र ज्ञान धीरे धीरे दुर्गम हो गया।

    क्रिया योग  का उल्लेख योग के अग्रगण्य व्याख्याकार, प्राचीन ऋषि पतंजलि ने दो बार किया, जिन्होंने लिखा थाः “क्रिया योग  में शरीर का अनुशासन, मानसिक नियन्त्रण और ओम्  (6) पर ध्यान होता है।” पतंजलि ने ध्यान में सुनाई देने वाली वास्तविक ब्रह्माण्डीय ध्वनि ओम्  को ईश्वर कहा है। (7) ओम्  रचनात्मक शब्द, (8) स्पन्दनशील मोटर की ध्वनि है। योग का आरम्भकर्ता भी शीघ्र ही आन्तरिक रूप से ओम्  की आश्चर्यजनक ध्वनि को सुनता है। इस आनन्दमय आध्यात्मिक प्रोत्साहन को पाकर, साधक आश्वस्त हो जाता है कि वह दिव्य लोकों के साथ वास्तविक सम्पर्क में है।

    पतंजलि, क्रिया  प्रविधि या प्राण नियन्त्रण का दूसरी बार इस प्रकार उल्लेख करते हैं: “मुक्ति उस प्राणायाम  द्वारा उपलब्ध होती है जिसे श्वास और प्रश्वास के प्रवाह को पृथक करके प्राप्त किया जाता है।” (9)

    सेन्ट पॉल क्रिया योग  या इसके समान एक तकनीक को जानते थे, जिसके द्वारा वे प्राण-शक्ति को इन्द्रियों से जोड़ या हटा सकते थे।

    इसीलिए वे कह सके, “निश्चित रूप से, मैं अपने उस आनन्द का वचन देता हूँ जो मुझे क्राइस्ट में मिलता है, मैं प्रतिदिन मरता हूँ।(10) प्रतिदिन अपनी शारीरिक प्राण-शक्ति को हटा कर, वे योग एकत्व द्वारा उसे क्राइस्ट चेतना के आनन्द (शाश्वत परमानन्द) के साथ एकीकृत करते थे। उस आनन्दप्रद अवस्था में, वे माया  के भ्रामक इन्द्रिय जगत में मृत होने के प्रति सचेत रूप से जागरूक थे।

    ईश्वर-सम्पर्क (सबिकल्प समाधि) की प्रारम्भिक अवस्थाओं में साधक की चेतना ब्रह्माण्डीय आत्मा के साथ एक हो जाती है; उसकी प्राण-शक्ति शरीर से हट जाती है, जो “मृत” या अचल और कठोर प्रतीत होता है। अपनी शारीरिक अवस्था के ठहराव के प्रति योगी पूर्ण रूप से सजग होता है। जैसे जैसे वह उच्चतर आध्यात्मिक अवस्था (निर्बिकल्प समाधि) की ओर प्रगति करता है, यद्यपि, वह शारीरिक बाध्यता के बिना और अपनी सामान्य जाग्रत चेतना में, कठिन सांसारिक कर्त्तव्यों को करते हुए भी ईश्वर के साथ कम्यून करता है। (11)

   “क्रिया योग  एक साधन है जिसके द्वारा मानवीय विकास को तीव्र किया जा सकता है,” स्वामी युक्तेश्वर ने अपने शिष्यों को समझाया। “प्राचीन ऋषियों ने खोज की कि ब्रह्माण्डीय चेतना का रहस्य श्वास निपुणता के साथ घनिष्टता से जुड़ा हुआ है। संसार के ज्ञान के खज़ाने में भारत का यह अद्वितीय और अमर योगदान है। प्राण शक्ति, जो हृदय के पम्प को कायम रखने में सामान्यतः लगती है, उसे साँस की अन्तहीन माँगों को शान्त करने और रोकने की एक विधि द्वारा, उच्चतर कार्यों के लिए मुक्त किया जाना चाहिए।

    क्रिया  योगी मानसिक रूप से अपनी प्राण शक्ति को ऊपर और नीचे घुमा कर छह चक्रों (आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान और मूलाधार) में संचालित करता है, ये राशिचक्र के बारह राशि चिन्हों के पूरक हैं जो ब्रह्माण्डीय पुरुष का प्रतीक है। मनुष्य के संवेदनशील मेरुदंड के चारों ओर आधे मिनट के लिए शक्ति की परिक्रमा से उसके विकास में सूक्ष्म प्रगति होती है; आधे मिनट की यह क्रिया  एक वर्ष की स्वाभाविक आध्यात्मिक प्रगति के बराबर होती है।

    मनुष्य की सूक्ष्म प्रणाली जिसमें छह (ध्रुवता द्वारा बारह) आन्तरिक नक्षत्र सर्वज्ञ आध्यात्मिक नेत्र के सूर्य के चारों ओर घूमते हैं, उनका सांसारिक सूर्य और बारह राशि चिन्हों के साथ परस्पर संबंध है। इस प्रकार सभी मनुष्य आन्तरिक और बाह्य ब्रह्माण्ड से प्रभावित होते हैं। प्राचीन ऋषियों ने यह खोज की कि मनुष्य का पार्थिव और स्वर्गिक परिवेश, बारह वर्षों के चक्रों में, उसे उसके स्वाभाविक मार्ग पर आगे धकेलता है। शास्त्र कहते हैं कि व्यक्ति को अपने मानवीय मस्तिष्क को पर्याप्त रूप से पूर्ण विकसित करने के लिए सामान्य और रोगमुक्त दस लाख वर्षों की आवश्यकता पड़ती है ताकि वह ब्रह्माण्डीय चेतना को अभिव्यक्त कर सके।

    आठ घंटों में एक हजार क्रिया योगी  को एक दिन में एक हजार वर्षों का स्वाभाविक विकास प्रदान करती है: एक वर्ष में 365000 वर्षों का विकास। इस प्रकार तीन वर्षों में क्रिया योगी  अपनी बौद्धिक आत्मचेष्टा द्वारा वही परिणाम पा सकता है जो प्रकृति एक लाख वर्षों में करती है। क्रिया  के छोटे रास्ते पर निश्चित रूप से अत्यंत विकसित योगी ही चल सकते हैं। अपने गुरु के पथ प्रदर्शन द्वारा, ऐसे योगी प्रखर अभ्यास द्वारा उत्पन्न होने वाली शक्ति को ग्रहण करने के लिए अपने शरीर और मस्तिष्क को सावधानीपूर्वक तैयार करते हैं।

     प्रारम्भ में क्रिया  करने वाला इस यौगिक अभ्यास को केवल चौदह से अट्ठाइस बार, दिन में दो बार करता है। अनेक योगी छह या बारह या चौबीस या अड़तालीस वर्षों में मुक्ति प्राप्त कर लेते है। जो योगी पूर्ण बोध प्राप्त करने से पहले दिवंगत हो जाता है वह क्रिया  के पूर्व प्रयास के अच्छे कर्म को अपने साथ ले जाता है; अपने नए जीवन में वह अपने असीम लक्ष्य की ओर सामंजस्यपूर्ण रूप से प्रेरित होता है।

    एक सामान्य व्यक्ति का शरीर पचास वॉट के बल्ब की तरह होता है जो आवश्यकता से अधिक उत्पन्न क्रिया  की शक्ति के एक अरब वाट्स को सहन नहीं कर पाता। क्रिया  की सरल और “सुनिश्चित” विधि को धीरे धीरे और नियमित रूप से बढ़ाने से व्यक्ति का शरीर दिन पर दिन सूक्ष्म रूप से रूपान्तरित होता है, और अन्ततः ब्रह्माण्डीय शक्ति के असीम सामर्थ्य को अभिव्यक्त करने योग्य हो जाता है-परम आत्मा की प्रथम सक्रिय भौतिक अभिव्यक्ति ।

    अनेक पथभ्रष्ट उत्साहियों द्वारा सिखाए जाने वाले श्वास के अवैज्ञानिक व्यायामों और क्रिया योग  में कोई भी समानता नहीं है। फेफड़ों में ज़बरदस्ती श्वास को रोकने का उनका प्रयत्न अस्वाभाविक ही नहीं, बल्कि निश्चित रूप से असुखद भी है। जबकि, क्रिया  के साथ, प्रारम्भ से ही अत्यधिक शान्ति, और मेरुदंड में पुनर्जीवित शक्ति के उत्पन्न होने से सुखदायक अनुभूतियाँ उठती हैं।

     प्राचीन यौगिक प्रविधि श्वास को मन में रूपांतरित करती है। आध्यात्मिक उन्नति द्वारा व्यक्ति श्वास को मन के कार्य के रूप में पहचानता है: स्वप्न-श्वास।

     मनुष्य की श्वसन गति और उसकी चेतना की अवस्थाओं की विविधताओं के बीच गणितीय संबंध के अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। एक व्यक्ति जिसका ध्यान पूर्ण रूप से किसी पेचीदा और बौद्धिक तर्क में लगा है, या किसी कठिन शारीरिक करतब में लगा है, अपने आप बहुत धीरे धीरे श्वास लेगा। एकाग्रता की स्थिरता धीमे श्वसन पर निर्भर करती है; तेज़ और असमान श्वास निश्चित रूप से हाानिकारक भावुक अवस्थाओं-भय, लालसा, क्रोध के साथ आता है। चंचल बंदर मनुष्य के 18 बार के विपरीत 32 बार श्वास लेता है। हाथी, कछुआ, सांप और अन्य जानवर जो अपनी लम्बी आयु के लिए जाने जाते है, उनकी श्वसन गति मनुष्य से कम होती है। उदाहरण के लिए कछुआ जिसकी आयु 300 वर्ष (12) होती है वह प्रति मिनट केवल चार बार श्वास लेता है।

     नींद का स्फूर्तिदायक परिणाम मनुष्य की शरीर और श्वास के प्रति अस्थायी अनभिज्ञता के कारण है। सोने वाला व्यक्ति योगी बन जाता है; हर रात वह अवचेतन रूप से स्वयं को शरीर की पहचान से मुक्त करने का यौगिक यज्ञ करता है, और अपनी प्राण शक्ति को मस्तिष्क के प्रमुख क्षेत्र और अपने मेरुदण्ड के छह उप-केन्द्रों के स्वास्थ्यकारी प्रवाहों के साथ एक करता है। इस प्रकार सोने वाला व्यक्ति अनजाने में सम्पूर्ण जीवन का पोषण करने वाली ब्रह्माण्डीय शक्ति के सागर में डुबकी लगाता है।

     एक स्वैच्छिक योगी इस सरल और स्वाभाविक प्रक्रिया को चेतन रूप से करता है, मन्द गति से सोते व्यक्ति की तरह अवचेतन रूप से नहीं। क्रिया योगी  अपनी प्रविधि का प्रयोग अपने समस्त शारीरिक कोशों को अविनाशी प्रकाश से परिपूर्ण तथा पुष्ट करने और उन्हें चुम्बकीय अवस्था में रखने के लिए करता है। वह वैज्ञानिक रूप से अवचेतन निद्रा या अचेतना की अवस्था उत्पन्न किए बिना श्वास को अनावश्यक कर देता है।

    क्रिया  के द्वारा प्रश्वास की प्राणशक्ति व्यर्थ नहीं होती और इन्द्रियों में उसका अपव्यय नहीं होता, बल्कि वह सूक्ष्मतर मेरुदण्डीय शक्तियों के साथ जुड़ने के लिए विवश हो जाती है। प्राणों के इस बलवर्धन से योगी का शरीर और उसके मस्तिष्क के कोश आध्यात्मिक अमृत से सशक्त होते हैं। इस प्रकार वह स्वयं को उन प्राकृतिक नियमों के सुनिश्चित पालन से मुक्त कर लेता है जो उसे उचित भोजन, सूर्य प्रकाश, सामंजस्यपूर्ण विचारों आदि के घुमावदार माध्यम द्वारा-दस लाख वर्षों में लक्ष्य प्राप्ति कराते हैं। मस्तिष्क के ढाँचे में हल्का सा परिवर्तन लाने के लिए सामान्य स्वस्थ जीवन के बारह वर्षों की आवश्यकता पड़ती है, और समुचित रूप से दस लाख सौर वर्ष आवश्यक हैं ताकि ब्रह्माण्डीय चेतना के प्राकट्य के लिए मस्तिष्क के क्षेत्र को पर्याप्त रूप से परिष्कृत किया जा सके।

    आत्मा को शरीर के साथ बाँधने वाली श्वास की डोर को खोल कर क्रिया  लम्बा जीवन देती है और चेतना को असीम की ओर विस्तृत करती है। योग विधि, मन और पदार्थ से बंधी इन्द्रियों के बीच के पारस्परिक संघर्ष को वश में करती है और साधक को अपने शाश्वत राज्य को पुनः प्राप्त करने के लिए मुक्त करती है। वह जान जाता है कि उसका सच्चा स्वरूप न तो शरीर के बन्धन से और न ही श्वास, वायु के प्रति नश्वर दासता और प्रकृति के तत्त्वों के लिए विवशता का प्रतीक, से बंधा है।

    आत्मनिरीक्षण या “मौन में बैठना” मन और इन्द्रियों को अलग करने का अवैज्ञानिक तरीका है, जो एक दूसरे के साथ प्राण शक्ति से बँधे हैं। अपनी दिव्यता की ओर वापिस जाने के लगा, चिन्तनरत मन, प्राण प्रवाहों द्वारा निरन्तर इन्द्रियों की ओर खिंचा रहता है। क्रिया , मन को प्राण शक्ति द्वारा प्रत्यक्ष रूप से नियन्त्रित करके, असीम के पास पहुँचने का सबसे आसान, प्रभावशाली और वैज्ञानिक तरीका है। धीमे, सुनिश्चित “बैलगाड़ी वाले” शास्त्रीय मार्ग के विपरीत, क्रिया  को उचित रूप में ईश्वर के पास जाने का “हवाई जहाज” मार्ग कहा जा सकता है।

    यौगिक विज्ञान सभी प्रकार के एकाग्रता और ध्यान के अभ्यासों के प्रयोगसिद्ध तर्क पर आधारित है। योग, साधक को पाँच इन्द्रियों के टेलिफोनों- दृष्टि, ध्वनि, सूँघना, स्वाद और स्पर्श से प्राणशक्ति को स्वेच्छा से जोड़ने या हटाने योग्य बनाता है। इन्द्रियों से अलग करने की इस शक्ति को प्राप्त कर, योगी सरलता से अपने मन को इच्छानुसार दिव्य राज्यों से या पदार्थ जगत से जोड़ता है। अब वह अनिच्छा से उपद्रवी संवेदनाओं और बेचैन विचारों के संसारिक क्षेत्र में प्राण शक्ति द्वारा वापिस नहीं लाया जा सकता। अपने शरीर और मन का स्वामी, क्रिया योगी अन्ततः “अन्तिम शत्रु” मृत्यु पर विजय प्राप्त करता है।

तो तुम भक्षण करोगे मृत्यु का, जो मनुष्यों का भक्षण करती है: और मृत्यु एक बार मृत, और अधिक मरना नहीं होगा फिर। (13)

     उन्नत क्रिया योगी  का जीवन अतीत के कर्मों से नहीं, बल्कि केवल आत्मा के मार्गदर्शन द्वारा प्रभावित होता है। इस प्रकार साधक धीमे, अहंकारपूर्ण कर्मों के विकासवादी नियंत्रणों, सामान्य जीवन के अच्छे या बुरे, बोझिल और घोंघे-समान से जिंदादिल बन जाता है।

     आत्मा के अनुसार जीने की श्रेष्ठ विधि योगी को मुक्त करती है जो, अपने अहम के कारागार से स्वतंत्र होकर, सर्वव्यापकता की गहरी वायु का आस्वादन करता है। सामान्य जीवन की दासता, इसके विपरीत, अपमानजनक गति से चलती है। अपने जीवन को विकासशील पद्धति के अनुसार चलाकर, व्यक्ति प्रकृति से तीव्र गति की माँग नहीं कर सकता बल्कि, भौतिक और मानसिक नियमों के विपरीत कोई गलती न करके जीवन जीते हुए, अन्तिम मुक्ति के लिए फिर भी दस लाख वर्षों के जन्मों की आवश्यकता होती है।

     योगियों के दूरदर्शी तरीके, स्वयं को शारीरिक और मानसिक पहचान से मुक्त करते हुए, आत्मा वैयक्तिकता का पक्ष लेकर, इस प्रकार उनकी सराहना प्राप्त करता है जो दस लाख वर्षों को विरोध से देखते हैं। संख्या की सीमा सामान्य व्यक्ति के लिए और भी अधिक है, जो प्रकृति के साथ भी सामंजस्य से नहीं रहता, न ही अपनी आत्मा के साथ, बल्कि अस्वाभाविक जटिलताओं का पीछा करता है, फलस्वरूप अपने शरीर और विचारों द्वारा प्रकृति के मधुर नियमों को भंग करता है। उसके लिए, बीस लाख वर्ष भी मुक्ति के लिए पर्याप्त नहीं होते।

     स्थूल व्यक्ति शायद या कभी नहीं समझ पाता कि उसका शरीर एक राज्य है, जो कपाल के सिंहासन पर सम्राट आत्मा द्वारा शासित है, जिसमें छह सहायक प्रतिनिधि, छह मेरुदण्डीय चक्रों या चेतना के क्षेत्रों में बैठे हैं। यह धर्मतंत्र आज्ञाकारी प्रजा तक फैला हुआ है: सत्ताइस हज़ार करोड़ कोशिकाएँ – जो सुनिश्चित पर स्वचालित बुद्धि से युक्त हैं, जिसके द्वारा वे शरीर की वृद्धि, रूपान्तरण और विलयन के सारे कर्तव्यों को करती हैं-और पाँच करोड़ मूल विचार, भावनाएँ और मनुष्य की चेतना के क्रमिक स्तरों की विभिन्नताएँ हैं, जो साठ साल के औसतन जीवन में प्रकट होती हैं। सम्राट आत्मा के विरुद्ध होने वाला शरीर या मस्तिष्क की कोशिकाओं का कोई भी प्रत्यक्ष विद्रोह, जो किसी रोग या निराशा के रूप में अभिव्यक्त होता है, विनम्र नागरिकों की निष्ठाहीनता के कारण नहीं होता, बल्कि अतीत या वर्तमान में व्यक्ति की वैयक्तिक या स्वतन्त्र इच्छा शक्ति के गलत प्रयोग के कारण होता है, जो उसे आत्मा के साथ मिली है, और कभी वापिस नहीं ली जा सकती।

     उथले अहम के साथ अपनी पहचान बना कर, मनुष्य यह मान लेता है कि वह ही सोचता, इच्छा करता, भोजन को पचाता है और स्वयं को जीवित रखता है, वह चिंतन द्वारा कभी नहीं मानता (जब कि थोड़ा सा विचार करना काफी होगा!) कि अपने सामान्य जीवन में वह पिछले कर्मों, स्वभाव और परिवेश की एक कठपुतली मात्र है। हर व्यक्ति की बौद्धिक प्रतिक्रियाएँ, भावनाएँ, मनोदशाएँ और आदतें इस जन्म या पूर्व जन्मों के पिछले कर्मों के प्रभावों का परिणाम है। उसकी सम्राट आत्मा, यद्यपि, इन सब प्रभावों से परे है। क्षणिक सत्यों और स्वतन्त्रताओं को अस्वीकार कर, क्रिया  योगी  सभी निराशाओं से गुज़र कर अपने मुक्त अस्तित्व में जाता है। सभी धर्म ग्रन्थ कहते हैं कि मनुष्य विकारी शरीर नहीं है, बल्कि जीवन्त आत्मा है; क्रिया  द्वारा उसे इस धार्मिक सत्य को सिद्ध करने की विधि दी गई है।

    “बाहरी धार्मिक अनुष्ठान अज्ञान को नष्ट नहीं कर सकते, क्योंकि वे परस्पर विरोधी नहीं है,” शंकराचार्य अपनी प्रसिद्ध शतश्लोकी  में लिखते हैं। “केवल बोधगम्य ज्ञान ही अज्ञान को नष्ट कर सकता है….. जिज्ञासा के अतिरिक्त ज्ञान अन्य किसी साधन से उत्पन्न नहीं हो सकता। ‘मैं कौन हूँ? यह सृष्टि कैसे उत्पन्न हुई? इसको बनाने वाला कौन है? इसका भौतिक कारण क्या है?’ इस प्रकार की जिज्ञासा का उल्लेख किया जा रहा है।” बुद्धि के पास इन प्रश्नों का उत्तर नहीं है; इसी लिए ऋषियों ने योग को आध्यात्मिक जिज्ञासा की विधि के रूप में विकसित किया।

     क्रिया  योग  ही वास्तविक “अग्नि यज्ञ” है जिसकी भगवद्‌गीता  में प्रायः प्रशंसा की गई है। योग की पवित्र करने वाली अग्नि से शाश्वत प्रकाश प्राप्त होता है, और इस प्रकार यह बाहरी और बहुत कम प्रभावशाली धार्मिक अग्नि संस्कारों से भिन्न है, जहाँ सत्य की अनुभूति प्रायः गंभीर मन्त्रों की संगति और अगरबत्ती के साथ भस्म हो जाती है।

     उन्नत योगी, अपने मन, इच्छा और अनुभूति को शारीरिक इच्छाओं के साथ झूठी पहचान से पूरी तरह हटाकर, मेरुदंड की वेदिका में अपने मन को परमचेतन शक्तियों के साथ एक करके, अतीत के आवेगों से प्रभावित हुए बिना और न ही नई मानवीय प्रेरणाओं की मन्दबुद्धिमता के अनुसार, इस प्रकार संसार में ईश्वर की योजना के अनुसार रहता है। ऐसा योगी अपनी परम इच्छा की परिपूर्णता प्राप्त कर के, अक्षय आनन्दमय आत्मा के सुनिश्चित आश्रय में सुरक्षित रहता है।

     योगी अपनी जटिल मानवीय उत्कंठाएँ अतुलनीय ईश्वर को समर्पित अद्वैतवाद की अग्नि में अर्पित करता है। वास्तव में यह ही सच्चा यौगिक अग्नि संस्कार है, जिसमें पूर्व और वर्तमान की सभी इच्छाओं का ईंधन दिव्य प्रेम द्वारा ग्रहण किया जाता है। परम अग्नि समस्त मानवीय पागलपन का बलिदान प्राप्त करती है, और मनुष्य तुच्छता से शुद्ध हो जाता है। उसकी अस्थियाँ सभी कामनाओं के माँस से रहित, उसका कार्मिक अस्थिपंजर ज्ञान की पवित्र धूप में निर्मल, अन्ततः वह स्वच्छ होकर, मानव और सृष्टा दोनों के सम्मुख निष्पाप हो जाता है।

     योग की निश्चित और सुव्यवस्थित क्षमता का उल्लेख करते हुए, भगवान कृष्ण तकनीकी योगी की इन शब्दों में प्रशंसा करते हैं: “योगी शरीर-अनुशासित तपस्वियों से श्रेष्ठ है, ज्ञान योग के मार्ग का अनुसरण करने वालों या कर्म योग का पालन करने वालों से भी श्रेष्ठ है; हे शिष्य अर्जुन, तुम, एक योगी बनो! “

Footnotes

  1. क्लीवलैण्ड के प्रसिद्ध वैज्ञानिक, डा जॉर्ज डब्ल्यू क्राइल ने 1940 के अमेरिकन एसोसिएिशन फार एडवान्समैन्ट आफॅ साइन्स के सम्मेलन में कुछ प्रयोगों का वर्णन किया जिनके द्वारा उसने सिद्ध किया कि सभी शारीरिक तंतु विद्युत की दृष्टि से नकारात्मक हैं, केवल मस्तिष्क और स्नायु तन्त्र ही विद्युत की दृष्टि से सकारात्मक रहते हैं, क्योंकि ये पुनर्जीवित ऑक्सीजन को अधिक तीव्र गति से ग्रहण करते हैं। 

  2. भगवद्गीता, IV:29  (पैराग्राफ पर वापस जाएँ)

   4. मानव धर्मशास्त्र के लेखक। भारत में धर्मशास्त्र की सामान्य विधि के ये संस्थान आजतक प्रभावी हैं। फँन्च विद्वान लूइस जैकोलिएट लिखते हैं कि “मनु का काल भारत के पूर्व ऐतिहासिक काल की रात्रि में खो गया; और किसी भी विद्वान ने उनसे संसार के प्राचीनतम कानूनविद की उपाधि छीनने का साहस नहीं किया। ‘ला बाइबल डन्स एल इन्डी पृष्ठ 33-37 में जैकोलिएट यह सिद्ध करने के लिए समान्तर ग्रन्थों के संदर्भ देते हैं कि रोमन कोड ऑफ जस्टिनियन मनु के विधि विधान का बहुत अधिक अनुसरण करता है। (पैराग्राफ पर वापस जाएँ)

   5. हिन्दू शास्त्रों के अनुसार भौतिक युग का प्रारम्भ 3102 ई पू में हुआ। यह अवरोही द्वापर युग का प्रारम्भ था (देखें पृ 226f)। आधुनिक विद्वानों का यह विश्वास है 10,000 वर्ष पहले सभी व्यक्ति जंगली प्रस्तर युग के अंधकार में थे, अतः भारत, चीन, मिस्र और अन्य देशों की बहुत प्राचीन सभ्यता के उल्लेखों और परम्पराओं को ‘मिथक’ कह कर अस्वीकार कर देते हैं। (पैराग्राफ पर वापस जाएँ)

   6. पतंजलि सूत्र, II:1। क्रिया योग शब्द का प्रयोग करते समय पतंजलि या तो बाबाजी द्वारा दी गई सटीक प्रविधि का उल्लेख कर रहे हैं या उसके समान किसी विधि का। कि यह प्राण नियन्त्रण की सुनिश्चित विधि है यह पतंजलि के सूत्र 11:49 द्वारा सिद्ध होता है। (पैराग्राफ पर वापस जाएँ)

   8. “प्रारंभ में शब्द था और शब्द ईश्वर के साथ था, और शब्द ईश्वर था… सभी वस्तुएँ उसके द्वारा बनाई गई थीं; और उसके बिना कोई रची हुई वस्तु नहीं थी जो बनी थी” जॉन 1:1-31 वेदों का ओम् मुस्लिमों का पवित्र शब्द आमिन, तिब्बतिओं का हुम, और क्रिश्चियनों का आमेन बना (हीब्रू में इसका अर्थ है निश्चित, विश्वसनीय)। “आमिन ने यह कहा, जो विश्वसनीय और साक्षी है. यह ईश्वर की रचना का प्रारम्भ है।” रेविलेशन 3:14 (पैराग्राफ पर वापस जाएँ)

 10. कॉरिन्थिअन्स 15:31 “अपना आनन्द” उचित अनुवाद है, न कि जैसा प्रायः दिया जाता है कि “तुम्हारा आनन्द।” सेन्ट पॉल क्राइस्ट चेतना की सर्वव्यापकता का उल्लेख कर रहे थे। (पैराग्राफ पर वापस जाएँ)

 11. कल्प का अर्थ है समय या युग। सबिकल्प का अर्थ है समय या परिवर्तन के अधीनः प्रकृक्ति या पदार्थ के साथ कुछ संबंध रहता है। निर्बिकल्प का अर्थ है. समयहीन, अपरिवर्तनशील; यह समाधि की उच्चतम अवस्था है। (पैराग्राफ पर वापस जाएँ)

 12. लिंकन लाइब्रेरी ऑफ असेनशियल इनफोरमेशन पृष्ठ 1030 के अनुसार, विशाल कछुआ 200 से 300 वर्ष जीता है। (पैराग्राफ पर वापस जाएँ)

 13. शेक्सपियरः सॉनेट # 146 । (पैराग्राफ पर वापस जाएँ)