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असलियत में धर्म का आधार भरोसा नहीं, बल्कि अंतर्ज्ञानी अनुभव है। अंतर्ज्ञान, आत्मा की ईश्वर को जानने की शक्ति है। यह जानने के लिए कि धर्म क्या है, हमे ईश्वर को जानना होगा।.

परमहंस योगानंद जी, (1983-1952), पहले भारतीय योग गुरु थे जिन्होंने पश्चिमी देशों में अपना स्थायी निवास बनाया।

योगानंद जी का नाम मुकुन्दा लाल घोष था, और वे एक धनी बंगाली परिवार में भारत के गोरखपुर शहर में जन्मे थे। बचपन से उनका स्वभाव आध्यात्मिकता की ओर था। उनका मनपसंद मनोरंजन था संतो को मिलना, और उनकी आध्यात्मिक तलाश उनको उनके गुरु, सेरामपुर के स्वामी श्री युक्तेश्वर जी, तक ले गयी। अपने गुरु के अंतर्गत प्रशिक्षण बदौलत वे केवल 6 महीनों में समाधी, मतलब ईश्वर के साथ अप्रतिबंधित एकता, को प्राप्त कर लिया।

औपचारिक आध्यात्मिक जीवन का शुरुआत

री युक्तेश्वर जी ने मुकुन्दा को 1914, में संन्यास में दीक्षा दी, उस दिन के बाद मुकुन्दा स्वामी योगानंद बन गए। योगानंद जी के बाहरी विशेष कार्य की शुरुआत 1916 में रांची में ब्रह्मचार्य विद्यालय की स्थापना से हुई।

विद्यालय के लिए आर्थिक व्यवस्था कासिम बाज़ार के महाराजा ने की और यह विद्यालय योगानंद जी के हर तरह से संपूर्ण शिक्षण के आदर्शों को पालन करता है: भारत के युवा का शारीरिक और आध्यात्मिक प्रशिक्षण।एक दोपहर विद्यालय में ध्यान करते हुए उन्हें दिव्य दृष्टि से बुलावा महसूस हुआ: उनको अपने गुरुओं द्वारा दी भविष्यवाणी को पूरा करना होगा: योग की पवित्र शिक्षाओं को भारत से पश्चिमी देशों में लेजाना होगा। तुरंत वे बॉस्टन के लिए निकले, भारत के प्रतिनिधिस्व्रूप, अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक उदार व्यक्तिों की सभा में बोलने के लिए। तब से वे मुख्यतः अमरीका में रहे 1952 में अपनी महासमाधी तक ।

योग के शिक्षण का अमरीका में प्रचार

अमरीका में योगानंद जी ने व्यापक रूप से सफ़र किया, बड़े शहरों में भाषण दिए। उनके आध्यात्मिक आंदोलन सफल रहे- हज़ारों लोग शहर के सबसे बड़े महाकक्ष में भरते थे, भारत की आत्मबोध शिक्षा को ग्रहण करने के लिए। वे इतना सम्मान दिए जाने वाले पहले भारतीय थे जिन्हे वाइट हाउस से अमरीका के राष्ट्रपति कैल्विन कूलिज ने बुलाया।

योगानंद जी एक बहुप्रजनक लेखक थे जो योग की शिक्षा का प्रचार लिखकर भी करते थे। उनके आत्मबोध के पाठ्यक्रम नें योग शिक्षा को स्पष्ट किया और उसे जीवन के हर पहलू में इस्तेमाल करना सिखाया। उन्होंने भगवद गीता, ईसाई बाइबल और ओमार खय्याम की रुबाइयात पर लेखिक भाष्य दिए और किताबें लिखीं: भजन, प्रार्थना और स्वास्थ्य प्राप्त करने के विज्ञान और कला पर। वे दोहराते थे कि उनका मुख्या कार्य ग्रंथों का स्पष्टीकरण करना और लाहिड़ी महाशय द्वारा दी गयी ध्यान की तकनीक क्रिया योग का प्रचार करना था।

जीवन का अंत

अपने आखरी दिन में योगानंद जी ने करीब शिष्यों की निजी प्रशिक्षण पर गौर किया जिससे वे उनका कार्य उनके जाने के बाद आगे बढ़ाएं। उनमे से एक शिष्य थे स्वामी क्रियानन्द, जिन्होंने 1969 में आनन्द की स्थापना की योगानंद जी के शिक्षण का प्रचार करने के लिए।

परमहंस योगानंद जी नें मार्च 7, 1952 में महासमाधी ली, जब वे एक महाभोज में थे, जोकि अमरीका के प्रति भारतीय दूत बिनय आर सेन के सम्मान में आयोजित था। यह उपयुक्त समायोजन था, क्युकि वे खुद पश्चिमी देशों के प्रति भारतीय आध्यात्मिकता के बत्तीस वर्षों से दूत थे।

योगानंद जी का सबसे प्रसिद्ध कार्य है उनकी ‘एक योगी की आत्मकथा‘।
इसे एक आध्यात्मिक प्रतिष्ठित कार्य माना जाता है, इसका सम्मान विभिन्न क्षेत्रों के प्रभावशाली व्यक्ति करतें हैं। इस किताब नें कइयों को प्रेरणा दी और प्रेरणा निरंतर देती रहती है।